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जातिगत जनगणना: सामाजिक न्याय की ओर एक निर्णायक कदम

जातिगत जनगणना का भारत में ऐतिहासिक निर्णय सामाजिक न्याय, आरक्षण, राजनीतिक प्रतिनिधित्व और सरकारी नीतियों को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित करेगा। इससे ओबीसी की वास्तविक जनसंख्या पता चलेगी, आरक्षण की सीमा पर दबाव बढ़ेगा, और सामाजिक समीकरणों में बदलाव आ सकता है, हालांकि सामाजिक विभाजन की आशंका भी बनी हुई है।

लंबे अंतराल के बाद भारत में जातिगत जनगणना कराने का ऐतिहासिक निर्णय लिया है। केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव ने जानकारी दी कि यह जनगणना आगामी जनगणना प्रक्रिया के साथ ही की जाएगी। यह निर्णय लंबे समय से चली आ रही मांगों को संबोधित करता है और इसके दूरगामी सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक प्रभाव होंगे।

इतिहास और पृष्ठभूमि

भारत में आखिरी बार जातिगत जनगणना 1931 में हुई थी। आज़ादी के बाद, सामाजिक विभाजन की आशंका को देखते हुए भारत सरकार ने जनगणना से जातीय आंकड़े हटाने का फैसला किया। इसके बाद 1951 से अब तक 15 बार जनगणना हो चुकी है, लेकिन इनमें केवल अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) के आंकड़े एकत्र किए गए, ओबीसी (OBC) की गणना नहीं हुई।

ओबीसी जनसंख्या और उसकी अहमियत

ओबीसी वर्ग को मंडल आयोग की सिफारिशों पर 27% आरक्षण दिया गया, लेकिन यह बिना प्रमाणिक जनसंख्या आंकड़ों के किया गया। 1931 की जनगणना के अनुसार OBC की आबादी 52% थी, जबकि हाल के बिहार और तेलंगाना के जातीय सर्वे में यह आंकड़ा क्रमशः 63% और 65% तक पहुंचा। अब राष्ट्रीय स्तर पर OBC की वास्तविक जनसंख्या क्या है, इसका पता इस जनगणना से लगेगा।

आरक्षण की सीमा पर संभावित प्रभाव

वर्तमान में आरक्षण की अधिकतम सीमा 50% है, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने निर्धारित किया है। जातिगत जनगणना के बाद यदि OBC की संख्या आधे से ज्यादा साबित होती है, तो आरक्षण की सीमा बढ़ाने की मांग को नया आधार मिलेगा। पहले ही कई राज्यों- जैसे बिहार, तेलंगाना और कर्नाटक ने जातीय सर्वे के बाद आरक्षण सीमा को बढ़ाया है।

राहुल गांधी और अन्य विपक्षी नेता लगातार ‘कोटा में कोटा’ यानी OBC, SC, ST महिलाओं के लिए अलग आरक्षण की मांग कर रहे हैं। इस जनगणना से उन्हें अपने तर्क को मजबूती देने के लिए आधार मिल सकता है।

सामाजिक प्रतिनिधित्व और राजनीतिक समीकरण

जातिगत जनगणना से लोकसभा और विधानसभा क्षेत्रों में जातीय संरचना का पता चलेगा। इससे राजनीतिक दल चुनावी रणनीतियों में बदलाव करेंगे। अधिक आबादी वाली जातियों को अधिक टिकट मिल सकते हैं और वर्तमान प्रतिनिधियों के समीकरण बदल सकते हैं। इससे संसद और विधानसभाओं की जातीय संरचना में भी बड़ा बदलाव आ सकता है।

यह स्थिति खासकर उन उच्च जातियों के लिए चुनौतीपूर्ण हो सकती है जिनकी वास्तविक संख्या अपेक्षा से कम निकलती है। वहीं, दलितों और OBC जातियों का प्रतिनिधित्व बढ़ सकता है।

सरकारी नौकरियों और शिक्षा पर असर

जातिगत जनगणना के आंकड़े सामने आने के बाद सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में आरक्षण के दायरे को पुनः परिभाषित किया जा सकता है। इससे OBC वर्गों को उनकी जनसंख्या के अनुपात में अवसर मिल सकते हैं। इसके अतिरिक्त, प्राइवेट सेक्टर में भी आरक्षण की मांग तेज हो सकती है।

यदि आरक्षण की सीमा हटती है, तो स्कूल-कॉलेजों में OBC छात्रों की संख्या में बढ़ोतरी संभव है। इससे शिक्षा क्षेत्र में सामाजिक समानता को बढ़ावा मिल सकता है।

महिला आरक्षण पर असर

मोदी सरकार ने 33% महिला आरक्षण कानून को पारित किया है। जातिगत जनगणना के बाद यह मांग उठ सकती है कि महिला आरक्षण में OBC, SC और ST महिलाओं को अलग से कोटा दिया जाए। इससे महिलाओं के बीच भी प्रतिनिधित्व और अवसरों को और समान बनाया जा सकता है।

सामाजिक तानाबाना और संभावित चुनौतियां

हालांकि जातिगत जनगणना सामाजिक न्याय को मजबूत कर सकती है, लेकिन इससे सामाजिक विभाजन की आशंका भी है। मंडल कमीशन लागू होने के बाद 1990 के दशक में हुए हिंसक आंदोलनों की यादें आज भी ताजा हैं। सवर्ण और पिछड़ी जातियों के बीच तनाव बढ़ने की आशंका को नकारा नहीं जा सकता। ऐसे में सरकार और राजनीतिक दलों को अत्यंत संतुलित दृष्टिकोण अपनाना होगा।

वित्त आयोग और नीतिगत बदलाव

जातिगत जनगणना के आंकड़े वित्त आयोग को राज्यों को अनुदान आवंटन में भी मदद करेंगे। इससे पिछड़े वर्गों की स्थिति सुधारने के लिए विशेष योजनाएं बनाई जा सकेंगी। राज्य सरकारें सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़ी जातियों को केंद्र में रखकर विकास की योजनाएं बना सकेंगी।

जातिगत जनगणना केवल एक डेटा संग्रहण प्रक्रिया नहीं है, बल्कि यह सामाजिक न्याय, राजनीतिक प्रतिनिधित्व और आर्थिक अवसरों के पुनर्वितरण की दिशा में बड़ा कदम है। हालांकि इसके साथ चुनौतियां भी हैं, लेकिन यदि सरकार संतुलित दृष्टिकोण के साथ आगे बढ़े, तो यह भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था को और मजबूत कर सकता है।

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