देश-विदेश

जातिगत जनगणना पर मोदी सरकार का बड़ा दांव: ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और सियासी मायने

केंद्र सरकार ने आगामी जनगणना में जातिगत आंकड़े शामिल करने का ऐतिहासिक निर्णय लिया है। यह कदम कांग्रेस की जातिगत राजनीति को चुनौती देता है, जिसने पूर्व में इस मुद्दे पर अस्पष्ट रुख अपनाया था। यह निर्णय सामाजिक न्याय और नीति निर्माण में पारदर्शिता लाने के लिए महत्वपूर्ण है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में केंद्र सरकार ने एक ऐतिहासिक फैसला लेते हुए आगामी जनगणना में जातिगत आंकड़े शामिल करने की घोषणा की है। यह निर्णय केवल प्रशासनिक या आंकड़ों की दृष्टि से महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि राजनीतिक रूप से भी एक बड़ा मोर्चा साबित हो सकता है खासकर कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों की जातिगत राजनीति को सीधी चुनौती देने के लिहाज से।

इस फैसले की घोषणा कैबिनेट कमेटी ऑन पॉलिटिकल अफेयर्स (CCPA) द्वारा की गई, जिसे केंद्र सरकार का ‘सुपर कैबिनेट’ कहा जाता है। खास बात यह है कि यह फैसला ऐसे समय में आया है जब बिहार जैसे राज्यों में जाति की राजनीति चरम पर है और कांग्रेस तथा विपक्षी पार्टियां लगातार केंद्र सरकार से जाति जनगणना की मांग करती रही हैं।

जाति जनगणना: कांग्रेस की हिचक और विरोध

जाति आधारित जनगणना को लेकर कांग्रेस का रवैया हमेशा द्वैध और अस्थिर रहा है। 2010 में तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने लोकसभा में जाति जनगणना की बात जरूर की थी, लेकिन इसे कैबिनेट स्तर पर विचार के लिए टाल दिया गया। बाद में 2011 में सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना (SECC) तो हुई, मगर उसमें भी जातिगत आंकड़ों को सार्वजनिक नहीं किया गया। कांग्रेस ने या तो यह आंकड़े जारी करने से इंकार किया या फिर तकनीकी खामियों का हवाला देकर पूरे विषय को ठंडे बस्ते में डाल दिया।

मोदी सरकार का यह निर्णय कांग्रेस की उसी राजनीतिक ढुलमुलता को उजागर करता है और यह भी दर्शाता है कि भाजपा अब समाज के सभी वर्गों को नीतिगत निर्णयों में भागीदार बनाने के लिए प्रतिबद्ध है।

भारत में जनगणना का इतिहास

भारत में जनगणना की शुरुआत ब्रिटिश शासन के दौरान वर्ष 1881 में हुई थी। तब से हर दस वर्षों में यह व्यापक जनसांख्यिकीय अभ्यास होता रहा है, जो देश की सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और सांस्कृतिक स्थिति का आंकलन करता है। यह अभ्यास 1948 के जनगणना अधिनियम के तहत होता है और इसके तहत एकत्र की गई सूचनाएं पूरी तरह गोपनीय मानी जाती हैं।

1931 में अंतिम जातिगत जनगणना

भारत में अंतिम बार जातिगत आंकड़े 1931 की जनगणना में दर्ज किए गए थे। उसके बाद से अब तक किसी भी आधिकारिक जनगणना में जाति आधारित आंकड़े नहीं जोड़े गए। हालांकि, 2011 में SECC के जरिए यह कोशिश जरूर हुई, लेकिन 46 लाख से अधिक जाति, उपजाति, गोत्र, उपनाम आदि के चलते डेटा की विश्वसनीयता और सटीकता पर सवाल उठे। यही कारण था कि इस रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं किया गया।

SECC और जनगणना: क्या है अंतर?

  1. जनगणना का उद्देश्य देश की संपूर्ण आबादी का चित्र प्रस्तुत करना होता है और इसके आंकड़े गोपनीय होते हैं।
  2. वहीं, SECC का उद्देश्य है देश के हर परिवार की सामाजिक और आर्थिक स्थिति को दर्ज करना और सरकारी योजनाओं के लाभार्थियों की पहचान करना।
  3. SECC के आंकड़े सरकार द्वारा नीतियों के निर्धारण में उपयोग किए जा सकते हैं, जबकि जनगणना सिर्फ आंकड़ों का संग्रहण होता है।

जातियों का आंकड़ा: साल दर साल

  1. 1872: जातियों का प्रारंभिक वर्गीकरण—ब्राह्मण, क्षत्रिय, आदिवासी, आदि।
  2. 1901: कुल 1,642 जातियां दर्ज।
  3. 1931: जातियों की संख्या 4,147 पहुंची।
  4. 2011 (SECC): 46 लाख से अधिक जाति-संबंधी नाम सामने आए, लेकिन डेटा अधूरा और विवादास्पद रहा।

मोदी सरकार का मकसद: पारदर्शिता और नीति आधारित न्याय

जातिगत जनगणना की घोषणा से यह स्पष्ट संकेत मिलता है कि अब भाजपा जातियों को केवल वोट बैंक के रूप में नहीं, बल्कि नीति निर्माण के केंद्रबिंदु के रूप में देख रही है। इससे सरकार को समाज के वंचित वर्गों तक सरकारी योजनाओं का लाभ पहुंचाने में मदद मिलेगी।

साथ ही, यह निर्णय विपक्ष के जातिगत नारों को नीतिगत जवाब देता है और यह संदेश भी देता है कि मोदी सरकार समाज को जोड़ने की नीति पर आगे बढ़ रही है, न कि वोट बैंक की राजनीति पर।

जातिगत जनगणना का फैसला न केवल आंकड़ों की दृष्टि से, बल्कि राजनीतिक, सामाजिक और प्रशासनिक स्तर पर भी एक महत्वपूर्ण मोड़ है। इससे देश को न केवल समाज की वास्तविक स्थिति जानने में मदद मिलेगी, बल्कि यह भी सुनिश्चित होगा कि योजनाएं उन्हीं तक पहुंचे, जिन्हें वास्तव में उनकी जरूरत है।

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button